अतीत में, मैं अनेक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रमों में जाता रहा हूं। परन्तु इस सप्ताह के सोमवार (18 नवम्बर, 2013) को जिस कार्यक्रम में गया वह वास्तव में कभी न भूलने वाला था। कार्यक्रम राष्ट्रपति भवन में, राष्ट्रपति महोदय की उपस्थिति में हुआ मगर पुस्तक का विमोचन उन्होंने नहीं किया! पुस्तक ‘दि लाइट विदइन‘ का औपचारिक लोकार्पण प्रज्ञा और प्राची नाम की दो छोटी बच्चियों द्वारा किया गया। दोनों जुड़वा बहनें हैं और वे जन्मांध हैं। वर्तमान में यह दोनों बारहवीं कक्षा में पढ़ती हैं। शिप्रा की पुस्तक में इन दोनों की अपने पिता के साथ पूर्व में खीची गई फोटो है।
प्राची और प्रज्ञा, जब वे मात्र 6 वर्षों की थी,
दिल्ली के व्यवसायी अपने पिता के साथ
शीर्षक में जिस पुस्तक को मैंने ‘अद्वितीय‘ वर्णित किया है वह फोटोपत्रकार शिप्रा दास द्वारा खींचे गए फोटोग्राफ्स का संकलन है।
दशकों से मैं दिल्ली में रहकर राजनीति में सक्रिय हूं और इसीलिए वर्षों से मैं शिप्रादास को जानता हूं। गुलजार जो स्वयं में एक महान कलाकार हैं, से ज्यादा कोई और बेहतर ढंग से उसका वर्णन नहीं कर सकते। एकदम शुरूआती पैराग्राफ ही पाठकों को फोटोग्राफर और उसके फोटोग्राफ्स का उत्तम रीति से वर्णन करता है, जिसके चलते यह पुस्तक अद्वितीय बनी है। गुलजार लिखते हैं:
शिप्रा दास के कैमरे में लैंस की जगह दिल है। जो अपनी अंगुलियों से चेहरों को देख और अनुभव कर सकता है, उनके पास अपने दिल से देखने हेतु आंतरिक लैंस है।
शिप्रा वही है।
दृष्टि विकलांग श्री जवाहर कौल ”ऑल इण्डिया कन्फेडेरेशन ऑफ दि ब्लाइंड” के प्रधानाचार्य हैं, वे कहते हैं: ”आप अपनी आंखों से देख सकते हो, लेकिन अपने दिल से नहीं, जैसे हम देख सकते हैं।” लेकिन शिप्रा दोनों से देख सकती है।
शिप्रा दास के फोटोग्राफ्स को देखने के बाद मछुआरे मिसरी साहनी, साफत अली हसन, मोटर मैकेनिक रियाजुद्दीन, की जिंदगी इतनी सामान्य दिखती है कि मुझे अपनी क्षमताएं कम, पिछड़ी और विकलांग सी लगती हैं।
पुस्तक का प्रकाशन नियोगी बुक्स ने किया है। कार्यक्रम का निमंत्रण जिसमें स्थान, दिनांक और भाग लेने वाले महानुभावों का संकेत मिलता है, न केवल परम्परागत रूप से छपा हुआ है अपितु ब्रेल लिपि में भी है।
सन् 2005 में शिप्रा ने मुझे अपने फोटोग्राफ्स की प्रदर्शनी का उद्धाटन करने हेतु निमंत्रण दिया था। उसकी थीम भी यही थी जिसे उसने विकसित कर अब 204 पृष्ठों की पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। मुझे पता चला कि उसने अपनी पूर्व प्रदर्शनी देश के आठ विभिन्न शहरों में लगाई थी।
इस पुस्तक के प्रकाशक ने समुचित रूप से इसकी सामग्री को यूं सारांश रूप में प्रस्तुत किया है:
”दि लाईट विदइन” मन्द दृष्टि लोगों के असाधारण जीवन को चित्रों के माध्यम से सही अर्थों में समानुभूति को प्रोत्साहित करती है और कुछ हद तक विस्मय के साथ। वे अपनी वाकपटुता, कुशाग्रता, स्पष्टता से आगे देखने की क्षमता से आपको मंत्रमुग्ध करते हैं। ‘दि लाईट विदइन‘ में शिप्रा संघर्ष और जीवित रहने, निराशा और आशा, पलटाव और विजयों की कहानी बयां करती है।
इस पुस्तक में प्रत्येक कहानी नाटक से भरपूर है। पुस्तक के चरित्र हमारी आंखें खोलते हैं। वे हमें जीवन को एक नए प्रकाश में देखना सिखाते हैं। वे हमें एक मनुष्य बनने में सहायता देते हैं। वे हमें सत्य की अंधकारमयी चकाचौंध से रूबरू कराते हैं जो हमारे ज्ञान से बाहर रह गया हो और उन अद्भुत जिन्दगियों को इस पुस्तक के माध्यम से स्पर्श नहीं किया गया। वे हमें प्रेरित करते हैं।
उसने (शिप्रा) अपने कैरियर की शुरूआत अस्सी के दशक के शुरू में कोलकाता में आनन्द बाजार पत्रिका समूह और फिर आजकल समाचारपत्र से की। सन् 1987 में वह पीटीआइ से जुड़ीं। उन्होंने नई दिल्ली में एजेंसी के राष्ट्रीय फोटो कवरेज से पहले कोलकाता में पीटीआई फोटो सेवा का विस्तार किया।
बाद में, दो दशकों से अधिक इण्डिया टूडे पत्रिका में काम करते हुए उन्होंने प्रमुख राजनीतिक समाचारों, देश के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और राजनीतिक तथा ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनाओं को कॅवर किया।
रेशमी सोनवणे रियाजुद्दीन
प्रीति मोंगा संगीता
पृष्ठ 2-3 पर इस ब्लॉग के पाठकों के लिए सिप्रा दास द्वारा चुनी गई दृष्टिहीनों के आसाधारण जीवन के उदाहरण दिए गए हैं।
संगीता, 38
स्कूल अध्यापिका
बिहार के मुजफ्फरपुर के एक लोहा विक्रेता की सुपुत्री संगीता दृष्टिहीनों के लिए एक आवासीय स्कूल चलाने के साथ-साथ गांव के गरीब बच्चों की सहायता के उद्देश्य से शुभम नाम का एक गैर-सरकारी संगठन चलाती है। दृष्टिहीन होने के नाते साधारण स्कूल में पढ़ाई करने के उनके सभी प्रयास विफल रहे। परन्तु उनका पढ़ाई का रिकार्ड किसी चमत्कार से कम नहीं है। उन्होंने विकलांगों के स्कूल में पढ़ाई की और मेरिट सूची में दसवां स्थान प्राप्त किया। उसने एम.फिल और पी.एच.डी. उपाधि हासिल की। सन् 1986 में वह विश्वविद्यालय के उन तीन सौ टॉप करने वालों में थीं जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चायपान पर बुलाया था। उन निमंत्रितों में से वह ही एकमात्र दृष्टिहीन थीं। प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा कि वह आगे क्या करना चाहती हैं। उनका तत्काल जवाब था वह दृष्टिहीनों को सामान्य जीवन जीने में सहायता करना चाहती हैं जैसीकि वह जी रही हैं। शेष इतिहास है। तब से संगीता अपने मिशन में शक्ति पाती जा रही है।
मिसरी साहनी, 30
मछुआरा
मिसरी साहनी बिहार के बुध्दनगर गांव के एक दृष्टिहीन मछुवारे हैं वह अपने घर कभी खाली हाथ नहीं लौटते। सात भाई-बहनों में सबसे बड़े मिसरी साहनी ने दो वर्ष की आयु में ही अपनी दृष्टि खो दी। दो महीने उनका ईलाज चला लेकिन डॉक्टर की मृत्यु हो गई। उसके पश्चात उनका कोई इलाज नहीं हुआ- उनके परिवार और पड़ोसियों को लगता था कि वह काले जादू का शिकार है। उनका भाग्य तब जागा जब उन्होंने अपने मछुआरे पिता के साथ बड़ीगंडक नदी जाना शुरू किया। मिसरी अच्छे तैराक हैं और किसी सक्षम मछुआरे से ज्यादा हैं। ठीक मौसम में वह 5000/-रूपए महीने तक कमा लेते हैं। वह कहते हैं कि सितम्बर और अक्तूबर के महीनों में मछली पकड़ना ज्यादा होता है।
मिसरी एक जनरल प्रोविज़न स्टोर चलाते हैं जो उन्होंने एक छोटे से सरकारी कर्जे की सहायता से शुरू किया। जब वह मछली पकड़ने जाते हैं तब उनके माता-पिता दुकान चलाते हैं। अक्सर वह पूरी रात नाव पर ही बिता देते हैं।
रेशमी सोनवणे, 32
ब्यूटीशियन
रेशमी सोनवणे कोई सामान्य ब्यूटीशियन नहीं है। न ही वह एक दृष्टिहीन महिला की छवि में समाती हैं। एक बच्चे की मां रेशमी आनुवंशिक रूप से दृष्टिहीन हैं। लेकिन इस बाधा ने उन्हें मुंबई के अपने अच्छे घर से ब्यूटीपार्लर चलाने से नहीं रोका। वह अनेक प्रकार की सेवाएं – बेसिक ब्यूटी ट्रीटमेंट से हेयर ड्रेसिंग और अरोमथरेपी देती हैं। रेशमी की हालत उस समय ध्यान में आई जब वह पेड्डार रोड के हिलग्रीन स्कूल की पांच वर्षीय छात्रा थी। वह कहती हैं कि ”मुझे मेरे अंधेपन का कारण नहीं पता था”। उनके अनुसार ”12वीं कक्षा की परीक्षा में वर्णमाला के अक्षर धुंधले दिखने लगे थे। एक काऊंसलर ने इस समस्या से निजात पाने में सहायता की और उसने अपनी शिक्षा पूरी की। रेशमी इतिहास में आनर्स स्नातक है, जो उन्होंने पाठकों और लेखकों की सहायता से पूरी की। तत्पश्चात् उसने आयात-निर्यात प्रबन्धन का अतिरिक्त प्रशिक्षण लिया। उनकी सुंदर आंखों के चलते रेशमी को अक्सर बस कंडक्टरों के असभ्य व्यवहार का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे मानने को तैयार नहीं होते कि वह वास्तव में दृष्टिहीन हैं। वह कहती हैं ”यह मुझे काफी अपमानजनक लगता है”। उनके पति टाटा मोटर डीलर हैं। उन्होंने अपने परिवार की इच्छा के विरूध्द यह विवाह किया। इस पर उनके परिवारवालों ने सम्बन्ध तोड़ लिया। आज, रेशमी को इस पर कोई पछतावा नहीं है।
रियाजुद्दीन, 55
मोटरसाइकिल मैकेनिक
रियाजुद्दीन भोपाल (मध्य प्रदेश) में एक मोटरसाइकिल मैकेनिक हैं। उनके द्वारा अपनाए गए पसंदीदा पेशे में उनकी दक्षता है। पूरे देशभर से इंजीनियर और मैकेनिक जरूरत पड़ने पर उनकी सलाह लेते हैं। दस बच्चों में से एक रियाजुद्दीन को मुन्नाभाई के नाम से भी पहचाना जाता है; 23 वर्ष की आयु में उनकी आंखों की रोशनी चली गई।
सत्तर के दशक की शुरूआत में जब एक मच्छर ने उनकी आंख पर काट लिया तो उन्हें एक डॉक्टर के पास ले जाया गया। डॉक्टर ने उनको जो दवा दी उसकी अवधि समाप्त हो चुकी थी। उनकी एक आंख की रोशनी चली गई। छ: महीने बाद दवाब के चलते उनकी दूसरी आंख की भी रोशनी जाती रही। गरीब होने के कारण उनका परिवार और ज्यादा इलाज नहीं करा सका। सन् 1980 में वह दिल्ली में टायर खरीदने गए। उनके अंधेपन का लाभ उठाने की उम्मीद से दुकानदार ने उन्हें पुराना टायर दे दिया। रियाजुद्दीन ने अपने हाथों से महसूस किया कि दुकानदार ने उन्हें खराब टायर दे दिया है। उन्होंने उसे वापस किया और दूसरा मांगा। दुकानदार ने उन्हें एक के बाद एक तीन पुराने टायर दिए। हर बार, रियाजुद्दीन ने उसके धोखे को पकड़ा। आखिरकार दुकानदार को लगा कि उसकी तिकड़म काम नहीं आएगी।
पांचवां टायर जो दुकानदार ने दिया वह एकदम नया था। जब रियाजुद्दीन जाने को हुए तो शर्मिंदा दुकानदार ने माफी मांगी और उसने कहा ”ंमैंने पिछले वर्षों में अनेक ग्राहकों को धोखा दिया है लेकिन आपने मेरी आंखें खोल दी। अब मैं कभी किसी ग्राहक को धोखा नहीं दुंगा”।
रियाजुद्दीन एक जिद्दी मैकेनिक हैं – वह प्रत्येक पुर्जा अपने आप चुनते हैं। उनकी मरम्मत की एक वर्ष की गारण्टी होती है। शुरूआती दिन काफी कठिन थे लेकिन शुक्रिया उनकी उम्दा कारीगिरी का जिसके चलते उनके ग्राहकों की संख्या बढ़ती गई। उनके नौ बच्चों में से सबसे बड़ा फैजल अपने पिता से यह गुर सीख चुका है।
एनफील्ड चेन्नई से मैकेनिक अक्सर भोपाल में उनसे सहायता लेने आते हैं। यहां तक कि जो अन्य मैकेनिक जब किसी मोटरसाइकिल की मरम्मत नहीं कर पाते तो मदद के लिए उनके पास आते हैं। वह मोटरसाइकिल की आवाज मोबाइल फोन पर सुनकर बता सकते हैं कि इंजिन में क्या गड़बड़ी है। इसलिए यदि उनके ग्राहकों को रियाजुद्दीन पर भरोसा है तो उसका कारण यही है।
प्रीति मोंगा, 49
जनसम्पर्क एक्जीक्यूटिव
पंजाब में जन्मी प्रीति मोंगा एक असाधारण महिला हैं। 6 वर्ष की आयु से दृष्टिहीन प्रीति दिल्ली के एक आंखों के अस्पताल में जनसम्पर्क अधिकारी हैं। वह कहती हैं ”मैं अपने दिल की सुनती हूं। जो मैं चाहती हूं उसे पाने से मुझे कोई रोक नहीं सकता। इसमें समय अवश्य लगता है लेकिन मैं छोड़ती नहीं हूं।” उनका जीवन भी इस भावना का जीता जागता उदाहरण है। नौवीं कक्षा तक वह दिल्ली कैण्टोंमेंट के लोरेटो कान्वेंट की छात्रा थी। उनकी हालत के चलते उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया, उन्हें घर पर बैठने को मजबूर होना पड़ा। तब उन्होंने ओपन स्कूल में अपने को पंजीकृत कराया परन्तु इससे भी सहायता नहीं मिली। वह हताश और नाराज हो गई। उनकी शादी से दिक्कतें और बढ़ीं, उनके दो बच्चों का बेरोजगार पति न केवल दर्व्यवहार करता था अपितु मारपीट भी। प्रीति जोकि दृष्टिहीनों की एयरोबिक्स इंस्ट्रक्टर थी, ने अपने और अपने बच्चों के लिए पर्याप्त कमाना शुरु कर दिया। उन्होंने अपने पति को तलाक दिया। प्रीति के दूसरे पति उससे दस वर्ष छोटे उनके सहयोगी हैं। वह स्मरण करती है कि ”तब मैंने उन्हें प्रस्ताव दिया तो उसने (पति) फैसला लेने में दो दिन लगाए। ”आज वे एक दशक से अधिक विवाहित जीवन बिता रहे हैं। आज वे पूर्वी दिल्ली क्षेत्र में एक फ्लैट के मालिक हैं। उसने इसकी आंतरिक सज्जा स्वयं की है।
टेलपीस (पश्च्यलेख)
शिप्रा की पुस्तक की अद्भुत चित्रों और विस्मयकारी कहानियों को देखते हुए मुझे भी अपने राजनीतिक जीवन में एक अत्यन्त चौंका देने वाली घटना का स्मरण हो आया।
जब 1998-2004 में, मैं श्री अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमण्डल में गृहमंत्री था तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के मंत्रिमण्डल में गृहमंत्री जैक स्ट्रा (1998-2001) और बाद में डेविड बलनकेट्ट (2001-2004) थे।
इन दोनों में से बलनकेट्ट का मामला न केवल विस्मयकारक था अपितु अनेकों के लिए यह अतुलनीय प्रतीत होता था।
डेविड बलनकेट्ट का जन्म 6 जून, 1947 को हुआ और वह 1987 से 2010 तक शैफील्ड ब्राइटसाइट से लेबर पार्टी के सांसद रहे। जन्मांध और शैफील्ड के सर्वाधिक वंचित जिलों में से एक निर्धन परिवार से सम्बन्धित डेविड शिक्षा और रोजगार सचिव, गृह सचिव और बाद में टोनी ब्लेयर सरकार में वक्र्स एण्ड पेंशन्स सचिव पद तक पहुंचे। संभवतया सन् 2002 में बलनकेट्ट भारत के दौरे पर आए। वह गणतंत्र दिवस परेड के बाद आए थे। वह विजय चौक पर बीटिंग रिट्रीट में गए। मैंने यह सुनिश्चित किया कि समूचा कार्यक्रम और विभिन्न बैण्डों द्वारा प्रस्तुत किए गए संगीत की जानकारी उन्हें ब्रेल लिपि में भी मिले।
विकीपीडिया पर डेविड बलनकेट्ट के बारे में दिए गए लम्बे लेख में उनके सहायक कुत्तों-रुबी, टेड्डी, ओफ्फा, लुसी, सेडी और कॉसबाई-के नाम दिए गए हैं और कहा गया है कि ये हाऊस ऑफ कामन्स में चिर-परिचित नाम बन चुके हैं। सामान्यतया ये चेम्बर के फर्श पर उनके पांवों के पास सोते रहते हैं। बलनकेट्ट और सदन के दोनों पक्षों के उनके सहयोगी सांसद अक्सर प्रेरक वाकपटुता दिखाते हैं। एक अविस्मरणीय घटना में, लुसी (एक काला लेब्राडोर) ने एक कंजरवेटिव सदस्य के भाषण के समय उल्टी कर दी। एक अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने जब बलनकेट्ट को ‘गाइड‘ किया तो व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी की गई, ”हू इज़ गाइडिंग हूम” (Who is guiding whom).
लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
22 नवम्बर, 2013